नई दिल्ली। देश के बड़े-बड़े शैक्षणिक संस्थानों, कोचिंग संस्थानों और हॉस्टल्स में बढ़ते स्टूडेंट्स की खुदकुशी के मामले पर सर्वोच्च न्यायालय ने चिंता जाहिर की।
सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्कोर बेस्ड एजुकेशन सिस्टम में परफॉर्म करने का प्रेशर और टॉप एजुकेशनल इंस्टिट्यूट में लिमिटेड सीटों के लिए बढ़ता कॉम्पिटिशन स्टूडेंट्स की मेन्टल हेल्थ पर भयानक बोझ डालता है।
टास्क फ़ोर्स बनाने का दिया आदेश
आईआईटी दिल्ली में पढ़ने वाले दो स्टूडेंट्स की आत्महत्या से जुड़े मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस जेबी पारदिवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा कि यूनिवर्सिटीज न केवल लर्निंग सेंटर बने, बल्कि छात्रों के कल्याण और विकास के लिए जिम्मेदार संस्थान की भूमिका भी निभाएं। बेंच ने आगे बोला कि अगर वे ऐसा करने मे असफल रहते हैं, तो शिक्षा का असली उद्देश्य यानी जीवन को सशक्त, सक्षम और परिवर्तित करना ही अधूरा रह जाएगा। बेंच ने छात्रों की मेन्टल हेल्थ से जुड़ी समस्याओं और आत्महत्या की घटनाओं को रोकने के लिए नेशनल टास्क फ़ोर्स बनाने का आदेश दिया।
बच्चों के माता-पिता बने कॉलेज
कोर्ट ने कहा कि सभी कॉलेज में काफी जातिगत भेदभाव है, जिससे वंचित समुदाय के छात्रों में अलगाव की भावना बढ़ रही है। कॉलेज परिसर में जाति आधारित भेदभाव संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है, जो जाति के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। कोर्ट ने कहा कि ज़ब विद्यार्थी अपने घरों से दूर जाकर पढ़ते हैं तो कॉलेज को लोको पेरेंट्स (अभिभावक की भूमिका) निभाने की जरूरत है। कॉलेज को सिर्फ नियम नहीं लागु करना है, बल्कि संकट के समय छात्रों को भावनात्मक सहारा भी देना है।
परीक्षा और प्रोफशनल समस्याएं बन रही आत्महत्या का कारण
बता दें कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो 2021 की रिपोर्ट के अनुसार 13 हज़ार से ज्यादा छात्रों ने आत्महत्या की, जो पिछले दस सालों की तुलना में लगभग दोगुना है। 2022 के आंकड़ों में आत्महत्या में 7.6% हिस्सेदारी छात्रों की थी, जिनमे से 1.3% मामलों की वजह करियर या प्रोफशनल समस्याएं और 1.2% परीक्षा में असफलता रही।